jdp, 05-02-2022 17:11:00 .
जगदलपुर। बस्तर में दो समानांतर सरकारें चल रही हैं। असली जंगल में नक्सलियों का राज है तो कॉन्क्रीट के जंगल में लोकतांत्रिक सरकार है। दो सरकारों के बीच आम आदमी जितना परेशान है, उससे कहीं ज्यादा बस्तर में पत्रकार और पत्रकारिता परेशान है। यहां पत्रकार कभी पुलिस के निशाने पर होता है तो कभी नक्सलियों की गोली पत्रकारों का इंतजार करती है। बस्तरिया पत्रकारों और नक्सली-पुलिस के खौफ का पुराना रिश्ता रहा है। यहां कई पत्रकारों को पुलिस जेल भेज चुकी है तो वहीं नेमीचंद, साईं रेड्डी जैसे पत्रकारों को नक्सली मौत के घाट उतार चुके हैं। शुक्रवार को भी कथित तौर पर एक बार फिर बस्तर के पत्रकार और पत्रकारिता नक्सलियों के निशाने पर आ गई है। नक्सलियों के पश्चिम बस्तर डिवीजनल कमेटी के हवाले से कथित तौर पर एक पर्चा जारी किया गया है और सुकमा, बीजापुर के कई पत्रकारों पर अफसरों व गरीबों को धमकाकर रूपयों की वसूली का आरोप लगाया है। ऐसा पहली बार हुआ है कि नक्सलियों की तरफ से इस तरह के पर्चे जारी हुए हैं। अभी ये स्पष्ट होना बाकी है कि ये पर्चा नक्सलियों ने ही जारी किया है या किसी ने शरारतपूर्ण हरकत की है, लेकिन यदि ये पर्चा नक्सलियों ने जारी किया है तो ये बेहद गंभीर विषय है। नक्सलियों ने जिन पत्रकारों पर वसूली का आरोप लगाया है, उनमें से कई ने अपनी आधी जवानी बस्तर, आदिवासी हित में पत्रकारिता करते हुए बिता दी है। इनमें से कई पत्रकारों को हम व्यक्तिगत तौर पर जानते हैं। यदि ये वसूली करने वाले होते तो इनके पास महंगी गाड़ियां और खुद के आलीशान बंगले होते और नक्सलियों के शीर्ष नेताओं की तरह इनके बच्चे भी विदेशों में पढ़ रहे होते। बस्तर के ज्यादातर पत्रकार तंगहाली की जिंदगी बिता रहे हैं, ये किसी से छिपा हुआ नहीं है। पत्रकारिता के साथ दीगर धंधे की कहानी बिल्कुल सही है, क्योंकि पत्रकारिता से पेट भरना अब मुमकिन नहीं है। पर्चे में बेहद आसानी से पत्रकारों और पत्रकारिता की छवि को खराब करने के लिए वसूली के आरोप तो लगा दिए गए, लेकिन लाल आतंक के सौदागर ये नहीं बता रहे हैं कि किस पत्रकार ने कब और कहां वसूली की है। वे बता भी नहीं पाएंगे, क्योंकि बस्तर का हर पत्रकार यहां के आदिवासी और बस्तरिया संस्कृति को बचाने के लिए काम कर रहा है।
बस्तर में बीते 15 सालों से रिपोर्टिंग करने वाले ऋषि भटनागर बताते हैं कि बस्तर में काम करने वाले ज्यादातर पत्रकार वेतनभोगी नहीं हैं। वे बड़े अखबारों और चैनलों में खबर पहुंचाने का काम करते हैं। बदले में उन्हें पैसे नहीं, सिर्फ उनके इलाके की खबर चलाने का लाभ मिलता है। ऐसे में पत्रकार घर को चलाने के लिए दीगर कामों से जरूर जुड़े हुए हैं, लेकिन पत्रकारिता की आड़ लेकर कोई करोड़ों-अरबों रूपए नहीं कमा रहा है। वे कहते हैं कि नक्सल प्रभावित इलाका हो या फिर शहरी क्षेत्र, कोई भी व्यक्ति पत्रकारों को क्यों पैसे देगा? यदि इतनी बड़ी संख्या में पत्रकार वसूली में लगे हुए हैं तो शासन-प्रशासन को इसकी भनक क्यों नहीं लग रही। ऋषि कहते हैं कि ये नक्सलियों का एक प्रोपोगंडा है। समय-समय पर पुलिस भी ऐसे ही प्रोपोगंडा आयोजित करती रहती है।
पिछले 10 सालों से नक्सल मामलों की रिपोर्टिंग करने वाले इमरान नेवी कहते हैं कि ऐसे आरोप-प्रत्यारोप पुलिस और नक्सलियों की ओर से लगते ही रहते हैं। कभी पुलिस पत्रकारों को नक्सलियों का समर्थक बताती है तो कभी नक्सली उन्हें पुलिस का मुखबिर कहते हैं। ताजा मामले में भी सिर्फ और सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप ही सामने आए हैं।
बस्तर के पहले वेब पोर्टल के संपादक रविशराज परमार की मानें तो बस्तर में पत्रकारिता करना ही अपने आप में बड़ी चुनौती है। जब आप तटस्थ रिपोर्टिंग करना शुरू करते हैं तो आपके ऊपर ऐसे आरोप-प्रत्यारोप लगने शुरू हो जाते हैं। हालांकि ये आरोप-प्रत्यारोप कई बार पीड़ा देने के साथ ही जानलेवा भी हो जाते हैं। इस पीड़ा से हमारे कई पत्रकार भी पहले गुजर चुके हैं।